मूवी रिव्यूःबॉम्बे वेलवेट

May 16, 2015 | 10:29 AM | 120 Views
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अनुराग कश्यप की फिल्म बॉम्बे वेलवेट काफी लंबी है।शुरुआत के बीस-बाईस मिनट आप कहानी के सिरे ढूंढते रहते हैं।फिर जब गाड़ी पटरी पर आती है तो ऐसे चलती है कि इंटरवेल का इंतजार होने लगता है।आजादी के दो साल बाद यानी 1949 से कहानी शुरू होती है जब पाकिस्तान की तरफ से दो शरणार्थी बच्चे अलग-अलग रास्तों से मुंबई पहुंचते हैं।छोटे-मोटे अपराध करते हुए जिंदा रहने की कोशिश करते हैं।इनमें से एक यानी जॉनी बलराज (रणबीर कपूर) ‘बिग शॉट’ बनना चाहता है।फिल्म में मुंबई के 1960-70 के दशक के दिन दिखाए गए हैं जब यह महानगर बॉम्बे था और तरक्की की तरफ रफ्तार पकड़ रहा था।विकास की दौड़ में निजी स्वार्थ साधने वाले बहुत थे।मेयर, अखबार मालिक-संपादक, मिल मालिक, उद्यमी और पूंजीपति।चूंकि ये छुप कर काम करते थे इसलिए अपराध को अंजाम देने के लिए इन्हें जॉनी जैसे लोगों की जरूरत पड़ती थी।निर्देशक ने कहानी में प्यार को सस्पेंस के साथ जोड़ा है।नायिका रोजी (अनुष्का) को सिंगर बना कर।वह उसी क्लब बॉम्बे वेलवेट में गाना गाती है जिसकी जिम्मेदारी जॉनी के पास है। रोजी का एक अतीत है और वह एक मिशन के तहत बॉम्बे वेलवेट में आई है।रणबीर के किरदार को लेकर निर्देशक-लेखक कनफ्यूज हैं।उन्हें नहीं पता कि जॉनी क्या है? फ्रीस्टाइल बॉक्सर, स्ट्रीट फाइटर, सड़कछाप गुंडा, क्रूर हत्यारा, क्लब मैनेजर, प्रेमी? कहानी में अचानक खंबाटा (करन जौहर) की एंट्री होती।वह कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वासी, अपराधी किस्म का व्यक्ति है जो बलराज को जॉनी नाम दे कर उससे फिक्सिंग और हत्या जैसे अपराध करता है।फिर उसे बड़ा आदमी बन जाने का एहसास देने के लिए क्लब खुलवा देता है बॉम्बे वेलवेट।कुल मिला कर कहानी में कई उलझाव हैं तो कहीं-कही बड़ी सपाट बयानी है। याद रहने लायक कोई संवाद यहां नहीं है। हिंसा बहुत है। रोमांस कम है। ऐसा कोई बिंदु फिल्म में नहीं आता जिसे ‘एंटरटेनमेंट’ कहते हैं।जहां तक ऐक्टरों का सवाल है तो रणबीर कपूर ने मेहनत की है।मगर वह बेअसर साबित होते हैं। अपने गेट-अप के साथ कई दृश्यों में वह मिथुन चक्रवर्ती की उन फिल्मों की याद दिलाते हैं जो किसी जमाने में दूर-दराज के थियेटरों के लिए बनाई जाती थी।अनुष्का शर्मा का ऐसा मेक-अप है कि आपका ध्यान सीधे उनके होठों पर जाता है।जिन्हें लेकर गॉसिप के गलियारे काफी गरमाए रहे हैं।वहीं अनुराग ने फिल्म संगीत के स्वर्णकाल वाले दिनों को दिखाते हुए गानों के लिए कर्कश आवाजें चुनी हैं।करन जौहर किसी कोण से विलेन नजर नहीं आते। उनकी ऐक्टिंग में भी दम नहीं है।उनकी डायलॉग डिलेवरी उनके टीवी टॉक शो जैसी है।फिल्म में पुरानी मुंबई के सैट, कलाकारों को दिया गया लुक जरूर थोड़ा आकर्षक है।

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