बीजेपी बनने के 35 वर्षों के दौरान महज दो बार ऐसा हुआ है कि लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित नहीं किया। पारंपरिक रूप से आडवाणी बैठक में समापन भाषण जरूर देते थे। पार्टी प्रेसिडेंट अमित शाह ने आडवाणी से बीजेपी के बेंगलुरु सम्मेलन को संबोधित करने का अनृरोध किया तो उन्होंने ठुकरा दिया। हालांकि आडवाणी के संबोधन पर आशंका पहले से ही थी। समापन भाषण से आडवाणी के इनकार को पार्टी से मोहभंग के रूप में देखा जा रहा है।बीजेपी की टॉप लीडरशिप भी इस बात को लेकर पूरी तरह से सजग थी कि पार्टी में अलग-थलग किए जाने के बाद आडवाणी संबोधन को लेकर क्या रुख अपनाएंगे। पिछले वर्ष अमित शाह को बीजेपी की कमान मिलने के बाद पार्टी में बड़े सांगठनिक बदलाव हुए हैं। पार्टी के सीनियर नेता आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को बीजेपी के निर्णायक मंडल पर्लामेंट्री बोर्ड से हटाकर मार्गदर्शक मंडल में शिफ्ट कर दिया गया है। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी हैं जो कि लंबे समय से बीमार चल रहे हैं। 1980 में बीजेपी के गठन से ही ये नेता पार्लमेंट्री बोर्ड के सदस्य थे। पार्टी में सीनिअर नेताओं के प्रति सख्त व्यवहार को बीजेपी में अटल-आडवाणी युग का अंत के रूप में देखा जा रहा है। पार्टी के भीतर फैसले लेने में मार्गदर्शक मंडल की कोई भूमिका नहीं है। विधानसभा चुनावों में रणनीति को लेकर भी इस मंडल से कोई संपर्क नहीं किया जाता है। जब बीजेपी ने दिल्ली में किरन बेदी को बतौर सीएम कैंडिडेट प्रॉजेक्ट किया तब भी इस मार्गदर्शक मंडल से कोई संपर्क नहीं किया गया। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी से गठबंधन पर भी आडवाणी से कोई राय नहीं ली गई।सूत्रों का कहना है कि यदि इस सम्मेलन को आडवाणी संबोधित करते तो इन मसलों पर कई सख्त सवाल उठा सकते थे। लेकिन आडवाणी पार्टी के निर्णयों पर विरोध करने के लिए खुलकर सामने नहीं आते। अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए उन्होंने खामोशी को ही हथियार बना लिया है। आडवाणी संसद की कार्यवाही में हर दिन शामिल होते हैं लेकिन हाउस में कभी बोलते नहीं हैं। इससे पहले 2013 में भी आडवाणी ने राष्ट्रीय कार्यरकारिणी को संबोधित नहीं किया था। तब वह मोदी को प्रमोट करने के फैसले के खिलाफ गोवा सम्मेलन से बीच में ही उठकर चले गए थे। इस बार वह बेंगलुरु में मौजूद हैं लेकिन उन्होंने खामोश रहने का ही फैसला किया।